"भारतीय कपास संकट के लिए नीतिगत कार्रवाई की आवश्यकता"
2025-06-30 11:49:52
चुनौतियों से जूझता भारतीय कपास क्षेत्र: नीतिगत ध्यान की पुकार
नीतिनिर्माताओं और उद्योग प्रतिनिधियों को भारत के कपास क्षेत्र की धीमी प्रगति को लेकर गंभीर चिंता होनी चाहिए। हाल के वर्षों में, देश की कपास फसल कई समस्याओं का सामना कर रही है—जैसे भूमि की कमी, जल संकट और जलवायु परिवर्तन।
कपास की बुवाई का रकबा लगभग 125-130 लाख हेक्टेयर पर स्थिर हो गया है, जबकि उत्पादकता 500 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर के शिखर से घटकर लगभग 425 किलोग्राम/हेक्टेयर रह गई है।
कपास का उत्पादन न केवल मात्रा में बल्कि गुणवत्ता में भी अस्थिर होता जा रहा है। वर्ष 2019-20 में 360 लाख गांठों का उत्पादन अब 2024-25 में घटकर 294 लाख गांठों तक आ गया है। पिछले तीन वर्षों से कच्चे कपास का निर्यात भी घट रहा है। 2024-25 में भारत एक शुद्ध निर्यातक से शुद्ध आयातक बन गया है।
इसी बीच, कपास की मांग लगातार बढ़ रही है, विशेष रूप से नई प्रोसेसिंग क्षमता (जैसे कि स्पिंडल्स) के जुड़ने से।
अब स्थिति यह है कि मांग और आपूर्ति के बीच अंतर बढ़ता जा रहा है। आयात बढ़ रहा है, जिससे यह सवाल उठता है—क्या भारत भविष्य में कपास उत्पादन में आत्मनिर्भर रह पाएगा?
यह सवाल कठिन है, लेकिन असंभव नहीं। अब समय आ गया है कि हम 'पुराने ढर्रे' से हटें और कपास क्षेत्र के लिए एक समग्र नीति अपनाएं। कपास अर्थव्यवस्था एक जटिल अर्थव्यवस्था है—यह श्रम-प्रधान और निर्यात-प्रधान दोनों है।
कपास केवल एक रेशा नहीं है, यह एक बहु-उपयोगी फसल है—बीज, तेल, खल जैसे उत्पाद भी इससे जुड़े हैं। वास्तव में, कपास '5F' का प्रतिनिधित्व करता है—Fibre (रेशा), Food (भोजन), Feed (चारा), Fuel (ईंधन), और Fertiliser (उर्वरक)।
इसकी जटिलता को देखते हुए, एक समग्र पारिस्थितिकी तंत्र की दृष्टि से नीति बनानी होगी, जिसमें सभी हितधारकों के आर्थिक हितों और सतत विकास को संतुलित किया जाए।
क्योंकि बुवाई क्षेत्र स्थिर हो चुका है और अब शायद विस्तार की सीमा पर है, इसलिए उत्पादन बढ़ाने का एकमात्र रास्ता ऊर्ध्व वृद्धि (vertical growth) यानी उत्पादकता बढ़ाना है। इसके लिए कई स्तरों पर हस्तक्षेप की आवश्यकता है।
लेखक, जो दशकों से कृषि क्षेत्र पर नज़र रख रहे हैं, चार प्रमुख सुझाव देते हैं:
1. तकनीकी हस्तक्षेप: Bt कपास बीजों की तकनीक अब कमजोर पड़ रही है। गुलाबी सुंडी जैसे कीटों ने शायद प्रतिरोधक क्षमता विकसित कर ली है। नई पीढ़ी के बीज (stacked genes वाले) उपलब्ध हैं, लेकिन इसके लिए अनुकूल नीतिगत वातावरण जरूरी है। बीज अकेले उत्पादकता नहीं बढ़ाते, लेकिन नुकसान को कम करने में सहायक होते हैं।
उद्योग निकायों को कृषि विश्वविद्यालयों और कृषि विज्ञान केंद्रों के साथ मिलकर किसानों को उच्च घनत्व रोपण (high-density planting) जैसे तरीकों पर प्रशिक्षित करना चाहिए।
2. आनुवंशिक अनुसंधान (Genetic Research): जलवायु परिवर्तन से लड़ने के लिए 'climate-smart agriculture' जरूरी है। इसके लिए, अनुसंधान एवं विकास (R&D) में निवेश बढ़ाना होगा। वर्तमान में, नीति के असहयोगी रुख के कारण कई निजी बीज कंपनियाँ R&D पर खर्च कम कर रही हैं, जो एक चिंताजनक बात है।
3. सफल क्षेत्रों की नकल (Replication): देश में औसतन कपास उत्पादकता 450 किलो/हेक्टेयर है, लेकिन कुछ जिलों में यह दोगुनी है। इन क्षेत्रों के अनुभवों को बाकी क्षेत्रों में दोहराना चाहिए—जैसे इनपुट मैनेजमेंट, उन्नत खेती के तरीके आदि।
4. अनुबंध खेती (Contract Farming): कपास के आयात पर निर्भरता कम करने और निर्यात बढ़ाने के लिए, बड़े औद्योगिक उपयोगकर्ताओं को स्वयं कच्चे माल के उत्पादन में भाग लेना चाहिए। FPOs (किसान उत्पादक संगठन) इस प्रयास में सहयोगी बन सकते हैं। यह किसानों और उद्योग दोनों के लिए फायदेमंद होगा।
निष्कर्ष: कपास पारिस्थितिकी तंत्र को मजबूत करने के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति और उद्योग की सक्रिय भागीदारी अनिवार्य है। यदि सभी हितधारक एकजुट हों और भविष्य पर केंद्रित नीति अपनाएं, तो भारत कपास में आत्मनिर्भरता बनाए रख सकता है।